हमारा समाज एक वृक्ष की तरह था, लेकिन हम जाति और धर्म में क्यों बट गए

एक विशाल बरगद के पेड़ पर भाँति भाँति के पक्षी और जन्तु निवास करते थे। हंस, कौए, कोयल, गिलहरी, बंदर आदि। सबने अपनी अपनी डाली और टहनी चुन ली थी। सबका अपना अपना रहन सहन, खाना पीना पर सभी साथ साथ हँसी खुशी रहते थे। एक दूसरे के सुख दुख के साथी।

पशु पक्षियों की तरह, मनुष्य एक वृक्ष मे से कैसे अलग हो गया -

एक दिन एक लकड़हारा पेड़ काटने आया। पेड़ पर रहने वाले सभी जंतुओं, पक्षियों ने नोचना, चोंच मारना शुरू किया। लकड़हारा भाग खड़ा हुआ, अपने इरादे में सफल नहीं हो सका। फिर बाद में उसने युक्ति लगाई। कौए को बुलाकर बोला- हंस हमेशा तुम्हारी खिल्ली उड़ाता रहता है। तुम काले हो, आवाज भी कर्कश है। गंदगी खाते हो। कोयल भी तुम्हारी आवाज की खिल्ली उड़ाती है।
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 फिर हंस को अलग बुलाकर बोला - कौआ और कोयल तुमसे जलते हैं। तुम्हारा बेदाग सफेद रंग उनसे बर्दाश्त नहीं होता। इसी तरह सभी एक दूसरे से जलने लगे और उनका व्यवहार सिर्फ अपनी डाल, अपनी टहनी तक सीमित रह गया। लकड़हारा फिर आया। अबकी बार उसने एक डाल, जिसपर हंस रहते थे, काटनी शुरू की।

हंस छटपटाए लेकिन बाकी पक्षी अपनी अपनी डाल पर इत्मीनान के साथ अपनी दिनचर्या में लगे रहे। लकड़हारे ने हंसों को भगा दिया और वो डाल काट डाली। इसी तरह उसने एक एक कर सारी डालियाँ काट डालीं। अब वो पेड़ ठूँठ खड़ा है, न डाली, न पक्षी। इस इंतज़ार में कि कब उसे जड़ से ही काट दिया जाएगा। जानते हैं वो पेड़ कौन है?

समय के साथ मनुष्य धर्म और जातियों में कैसे बट गया, जाने-

वो है हिंदुत्व। आज हम ब्राह्मण, क्षत्रिय,कायस्थ , सिख, मराठा, जैन, बनियाँ, बौद्ध, यादव, जाट, गूजर, पटेल, आदि आदि न जाने कितने शाखाओं में बँट गये हैं। धर्म, जाति, क्षेत्रीयता, न जाने क्या क्या आधार बना लिये हैं अपने इस बँटवारे के लिए। अलग अलग अपनी अपनी शाखा तक सीमित। हम दुनियाँ से जितना जुड़ते गए, "अपनी" दुनियाँ उतनी ही सीमित होती गई। जड़ और तने पर किसी की नज़र ही नहीं।
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